Sobhna tiwari

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परिणीता भाग :- ८

                    Parineeta  भाग :- ८

ललिता उसी संदूक के सामने आकर बैठ गई और कहने लगी- ‘जाओ, ओफिस जाने की तैयारी में लगो, मैं सब सामान ठीक से रख देती हूँ।’

‘अच्छा इससे भली और क्या बात हो सकती है।’ ललिता को चाभी का गुच्छा देकर शेखर बाहर जाने लगा। जाते समय कुछ ख्याल हो आया, अतः दरवाजे के पास खड़े होकर उसने कहा- ‘मुझे क्या-क्या आवश्यकता है, यह तुम्हें मालूम है न?’

ललिता संदूक के अंदर की वस्तुएं एक-एक करके देखने लगी। शेखर की बात का कोई भी उत्तर नहीं दिया।

शेखर ने नीचे जाकर, माँ से पूछकर मालूम किया कि अन्नाकाली ने जो कुछ कहा, वह सब सत्य है। गुरुचरण बाबू ने पूरा कर्जा अदा कर दिया। ललिता के लिए योग्य वर की खोज है-यह भी सत्य है। तत्पश्चात् कुछ और पूछकर वह स्नान करने के लिए चला गया।

लगभग दो घंटे के पश्चात् नहा-खाकर शेखर अपने कमरे में कपड़े पहनने के लिए आया। कमरे में आते ही उसने जो देखा उसे देखकर वह एकाएक आश्चर्य में पड़ गया। इन दो घंटो में ललिता ने कुछ कार्य नहीं किया था। वह बक्स के पास, मन मारे, माथा टेके हुए खामोश बैठी थी। शेखर के आने की आहट से उसने झट सिर उठाया और फिर तुरंत गरदन नीची कर ली। रोते-रोते उसकी आँखें फूल आई थीं। शेखर की नजर उसकी आँखों पर आवश्यक पड़ी, परंतु उसने न देखने का बहाना किया। वह चुपचाप अपने दफ्तर के कपड़े पहनने लगा। कपड़े पहनते हे, सहज भाव से उसने कहा- ‘अभी रहने दो ललिता। स समय तुमसे यह सब न हो सकेगा, दोपहर में आकर रख जाना।’ यह कहकर शेखर ओफिस चला गया। उसने ललिता के मनोभाव को पूर्ण रूप से समझ लिया था, फिर भी हर बात को बगैर सोचे-समझे कह डालना वह उचित नहीं समझता था, और न तो उसकी हिम्मत ही हुई।

वह उसी दिन मामा को चाय देने के समय कमरे में आई, तो वहाँ शेखर को भी उपस्थित देखकर दंग रह गई। वह यात्रा पर जाने के पहले गुरुचरण बाबू से मिलने के लिए आया था।

ललिता ने चाय तैयार करके, गिरीन्द्र और मामा के सामने दो कपों में लाकर रख दी। गिरीन्द्र ने पूछा- ‘क्यों ललिता, शेखर बाबू को चाय न दोगी?’

मीठी स्वर में ललिता ने कहा- ‘ललिता ने एक दिन ऐसा कहा भी था कि शेखर दादा चाय नहीं पीते और अन्य को पीने भी नहीं देना चाहते। तत्काल गिरीन्द्र को वही बात याद आ गई थी।

हाथ में चाय का कप लेकर गुरुचरण बाबू ललिता के लिए ढूंढे गए वर की वात कहने लगे- ‘लड़का अच्छा है, बी.ए. में पढ़ रहा है।’ यह सब कह चुकने के पश्चात् फिर बोले- ‘फिर भी तो वह लड़का गिरीन्द्र को न भाया। इतना जरूर है कि लड़का विशेष साफ और सुन्दरी नहीं है, फिर भी शादी के बाद कौन रूप-रंग और सुंदरता देखता है, और यह रंग-रूप काम ही क्या आता है? मर्द की अच्छाई तो उसके गुणों में होती है।’

गुरुचरण बाबू की एकमात्र इच्छा यह थी कि किसी तरह ललिता का पाणिग्रहण हो और उनके सिर से यह बोझ उतरे।

आज ही शेखर का परिचय गिरीन्द्र को, यहीं पर बैठे हुए हुआ था। गिरीन्द्र को देखकर शेखर को कुछ हंसी आई और उसने कहा- ‘आखिर गिरीन्द्र बाबू को क्यों लड़का अच्छा नहीं लगा? लड़का अभी पढ़ता है, उम्र भी ठीक है, फिर तो कोई कमी है ही नहीं। सुपात्र के यही सब गुण हैं।’

गिरीन्द्र को लड़का पसंद क्यों नहीं है- इस बात शेखर समझ चुका था। उसे भविष्यमें भी कोई लड़का भला न मालूम होगा। गिरीन्द्र ने इस बात का कुछ उत्तर नहीं दिया, उसका मुंह आरक्त हो उठा। शेखर ने उस आरक्त मुखाकृति को भी देख लिया। वह उठकर खड़ा हो गया बोला- ‘काकाजी, कल मैं माँ को लेकर प्रयाग जा रहा हूँ, परंतु याद रखिएगा, ठीक समय पर शुभ कार्य की खबर अवश्य दीजिएगा।’

गुरुचरण बाबू ने उत्तर दिया- ‘क्या कहते हो, बेटा! तुम्ही तो मेरे सब कुछ हो, मेरा है की कौन। फिर ललिता की माँ की अनुपस्थिति में कोई काम भी तो नहीं हो सकता। क्यों बेटी?’ इतना कहकर गुरुचरण बाबू मुस्कुराए और ललिता की और देखा।

मगर ललिता को वहाँ न देखकर बोले- ‘आखिर ललिता यहाँ से कब चली गई?’

शेखर ने कहा- ‘ज्यों ही यह बात छिड़ी वह चली क्यों न जाए?’

अत्यंत गंभीर भाव से गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘वह चली क्यों न जाए? आखिर वह भी सयानी हुई, समझ भी उसकी कम नहीं है!’ उन्होंने एक गहरी सांस ली और कहने लगे- ‘मेरी पुत्री ललिता सरस्वती और लक्ष्मी का सम्मिलित स्वरूप है। ऐसी लड़की होना ही कठिन है। ऐसी औलाद बड़े पूजा-पाठ करने के बाद ही मिलती है, शेखर भैया!’

यह बात उनके मुख से निकलते ही, उनके दुबले मुख पर एक प्रकार की चमक दौड़ गई। उनकी ऐसी अवस्था देखकर गिरीन्द्र तथा शेखर दोनों में श्रद्धा का बहाव उमड़ आया।

(7)

ललिता अपने विषय की बात होते देखकर वहाँ से चली आई, और सीधे शेखर के कमरे में पहुंची। उसने शेखर के बक्स को खींचकर रोशनी में किया, और सभी कपड़े तथा आवश्यक सामान उसमें रखना शुरु किया। उसी समय शेखर भी वहाँ आ गया। शेखर के आते ही ललिता की दृष्टि उस पर पड़ी और वह एकाएक चक्कर में पड़ गई, कुछ बोल न सकी।

जिस प्रकार किसी मुकदमे का हारा मुवक्किल एकदम निर्जीव-सा हो जाता है, बोल नहीं पाता, उसकी सूरत बिगड़ जाती है, उसको पहचान सकना भी कठिन हो जाता है-ठीक वैसे ही हालत उस समय शेखर की थी। अभी एक घंटे में ही शेखर की मुखाकृति ऐसी बदल गई थी कि ललिता उसे पहचान नहीं पा रही थी। न जाने कैसी उदासी और परेशानी शेखर के मुख पर छाई थी। मालूम होता था कि उसका सर्वस्व लुट चुका है। उसने कुछ भारी तथा सूखे स्वर में पूछा- ‘ललिता, क्या कर रही हो?’

शेखर की दशा देखकर ललिता हैरान थी। वह उसके पास आई और पकड़कर बोली- ‘क्या हुआ भैया? इतना परेशान क्यों हो?’

ललिता को दिखाने के लिए शेखर थोड़ा मुस्करा दिया और बात बनाते हुए बोला- ‘कहाँ? हुआ तो कुछ भी नहीं।’ ललिता के स्नेह-भरे हाथों के छूने से उसमें कुछ जान आ रही थी। पास ही पड़ी हुई कुर्सी पर बैठते हुए शेखर ने कहा- ‘क्या कर रही हो, ललिता?’

ललिता ने उत्तर दिया- ‘आपका ओवरकोट रखने को रह गया था, उसे ही बक्स में रखने आई हूँ। बड़े ही चाव से शेखर उसकी बांते सुन रहा था। ललिता कहती गई- ‘पिछले साल गाड़ी में तुम्हें सर्दी से बड़ा ही कष्ट हुआ था। कोट तो तुम्हारे पास थे, किंतु बड़ा और मोटा कोट कोई भी नहीं था। इसी कारण वहाँ से लौटने पर, यह ओवरकोट तुम्हारे नाप का बनवा लिया था।’ यह कहकर ललिता ने स कोट को यथास्थान रख दिया और शेखर से कहा- ‘भैया, सर्दी के समय अवश्य पहन लेना।’

‘अच्छा- कहकर शेखर थोड़े समय तक ललिता की ओर एकटक देखता रहा-फिर उसने एकाएक कहा- ‘नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता।’

ललिता ने कहा- ‘क्या नहीं हो सकता, भैया? क्या इस कोट को नहीं पहनोगे?’

शेखर ने बात बताते हुए कहा- ‘ऐसी बात नहीं, दूसरी बात है।’

नहाकर उसने ललिता से पूछा- ‘क्या माँ का भी सामान ठीक हो गया है?’

ललिता- ‘हां, मैनें ही तो दोपहर को बांधकर ठीक कर दिया है।’ यह कहते हुए, सब सामान देखकर ललिता ने बक्स बंद कर दिया।

थोड़ी देर पश्चात शेखर ने ललिता से पूछा- ‘अच्छा, अब मेरा अगले वर्ष से कैसे क्या होगा?’

‘क्यों?’

‘ललिता, इस क्यों का मुझे पूर्ण अनुभव हो रहा है!’- वास्तव में यह बात शेखर के मुंह से निकल तो गई, किंतु उस बात को बदलते हुए, हंसी के साथ उसने कहना शुरू किया- ‘अच्छा ललिता, दूसरे घर जाने से पहले यह बतातो जाना कि कौन-सी चीज कहाँ पर है। क्या-क्या है और क्या नहीं है, कौन वस्तु कहाँ आवश्यक है-इस सबकी जानकारी मुझे अवश्य करा देना, ताकि कीसी प्रकार की दिक्कत न उठानी पड़े और समय पर सभी चीजें मिल भी सकें।

थोड़ा-सा चिढ़कर ललिता ने कहा- ‘अरे जाओ।’

शेखर को हंसी आ गई। वह बोला- ‘केवल “जाओ” कहने से तो काम न बन सकेगा। लिलात यह सत्य है। आखिर तुम्हीं सोचो कि मेरा काम आगे कैसे चलेगा? मेरी इच्छाएं तुम्हें मालूम हैं कि बड़ी हैं, परंतु उसकी पूर्ति की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। फिर सब काम नौकरों द्वारा नहीं कराए जा सकते। मुझे अब ऐसा लग रहा है कि तुम्हारे मामा की तरह सादा जीवन बिताना पड़ेगा। कुर्ता और धोती पर ही बसर होगी। खैर, कुछ भी हो, परमात्मा की जैसी इच्छा हो।’

ललिता शरमाकर चाभियां फेंककर चली गई।

उसको जाते देखकर शेखर ने जोर से आवाज दी- ‘ललिता, सवेरे अवश्य आ जाना।’

परंतु ललिता ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। वह तेजी से दूसरी मंजिल पर चली गई। वहाँ उसने अन्नाकाली को चांदनी के प्रकाश में माला बनाते हुए देखा! उसके निकट आकर ललिता ने कहा-अन्नाकाली, ओस में बैठकर क्या बना रही है?

अन्नाकाली सिर झुकाए हुए बोली- ‘माला बना रही हूँ। आज रात मेरी लड़की का विवाह है न।’

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